ब्यूरो
हरिद्वार, 25 सितम्बर। श्री राधा रसिक बिहारी भागवत परिवार सेवा ट्रस्ट के तत्वावधान में रामनगर कॉलोनी ज्वालापुर में आयोजित श्रीमद् भागवत कथा के पहले दिन भागवताचार्य पंडित पवन कृष्ण शास्त्री ने श्राद्ध कर्म का वर्णन करते हुए बताया मृत्यु के बाद 10 दिन तक जो दैनिक श्राद्ध होता है उसे “नव श्राद्ध” दशगात्र ग्यारहवे दिन का श्राद्ध ”नव मिश्र श्राद्ध” और बाहरवें का श्राद्ध द्वादशाह “सपिण्डी श्राद्ध” कहलाता है। ऐसा कहा जाता है कि इन सब कर्माे के बाद मृतक प्रेत योनि से छूटकर देव योनि में जाता है। मृत्यु के बारह महीने बाद उसी तिथि को जो श्राद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते है।
उसी तिथि को हर वर्ष जो क्रिया की जाती है उसे “संवत्सरी” और हर वर्ष कन्या चलित सूर्य अर्थात् आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में किया जाने वाला कर्म कनागत या श्राद्ध कहलाता है। कनागत भाद्रपद की पूर्णिमा से लेकर आश्विन की अमावस्या तक अर्थात् 16 दिन तक चलते है। पितृ कर्म के अलावा देव कर्म में भी एक श्राद्ध किया जाता है। जिसे नान्दी श्राद्ध कहते है। ये शब्द अक्सर अपने आस-पास होने वाली बड़ी-बड़ी देव प्रतिष्ठाओं और धार्मिक आयोजनों में सुना होगा। श्राद्ध करना इंसान की श्रद्धा का विषय है। लेकिन कई लोग इसे एक ढोँग भी मानते है। उनके हिसाब से मौत के बाद कौन देखता है कि हमने मृतात्मा के लिए क्या किया। उन विद्वानोँ से मैं कहना चाहूँगा कि हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है और ये एक आत्मावादी धर्म है।
हमें पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करने के लिए श्राद्ध करना ही होता है,सच कहा जाये तो ये संतति का कर्तव्य है कि हम अपने पितरो के नाम से ये कर्म करें, अश्रद्धा से किया गया हवन, तप अथवा कुछ आर्य असत् कहलाता है। उसका फल न तो मृत्यु के उपरान्त मिलता है और न इस जन्म में ही। जिन्हें हमारे स्मृति-पुराण ग्रन्थों पर श्रद्धा नहीं है , पितरोंके श्राद्ध-पिण्डदान आदि पर श्रद्धा नहीं है, उनके श्राद्ध-पिण्डदान करने पर भी उनका यह पितरों के निमित्त किया गया कव्य कर्म निष्फल ही है। श्रुति स्मृति आदि किसी भी शास्त्र में मृत्युभोज ऐसे किसी शब्द का उल्लेख भी नहीं है। केवल श्राद्ध का उल्लेख है मुख्य तथ्य यह है कि किसी भी शास्त्र ने वर्तमान में प्रचलित प्रकार के भोज करने कराने का कोई निर्देश बतौर अनिवार्यता भी नहीं किया है।
वरन् विषम संख्या में ब्राह्मणों को ही भोजन का संकेत है वह भी श्रद्धा व अभिरुचि अनुसार ही शास्त्रो ंमें विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराने का नियम है। लेकिन देवकर्म और पितृकर्म में एक भी विद्वान् ब्राह्मण भोजन कराने से जो विशेष फल प्राप्त होता है, वह देव विद्या से विहीन बहुत ब्राह्मणों को खिलाने से भी नहीं होता। शास्त्री ने कहा कि वेदज्ञ पुरुष अपना प्रिय हो या अप्रिय इसका विचार न करके उसे श्राद्ध में भोजन कराना चाहिये। जो दस लाख अपात्र ब्राह्मण को भोजन कराता है, उसके यहाँ उन सबके बदले एक ही सदा संतुष्ट रहने वाला वेदज्ञ ब्राह्मण भोजन करने का अधिकारी है। ,अर्थात् लाखों मूर्ख की अपेक्षा एक सत्पात्र ब्राह्मण को भोजन कराना उत्तम है। इसलिए हजारों-लाखों को अन्त्येष्टि-श्राद्ध में खिलाना आवश्यक नहीं है। अपितु एक ही वेदज्ञ ब्राह्मण को खिलाने से सर्वसिद्धि हो जाती है। शास्त्री ने कहा कि भगवान श्री राम को जब वनवास में पिता की मृत्यु का ज्ञात हुआ।
तब उन्होंने वन में ही इङ्गुदी के गूदे में बेर मिलाकर उसका पिण्ड तैयार किया और बिछे हुए कुशोंपर उसे रखकर अत्यन्त दुःख से आर्त हो रोते हुए ब्राह्मण देवता से यह बात कही महाराज प्रसन्नता पूर्वक यह भोजन स्वीकार कीजिए क्योंकि आजकल यही हम लोगों का आहार है। मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है। वही उसके देवता भी ग्रहण करते हैं। श्राद्ध श्रद्धा का विषय है -प्रदर्शन का नही। प्रत्येक व्यक्ति को श्रद्धापूर्वक अपने पितरों के लिए श्राद्ध कर्म करना चाहिए और ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। तभी जाकर पित्र दोष से मुक्ति मिलती है। पित्र प्रसन्न होकर घर में धन-धान्य, आयु आरोग्य की वृद्धि करते हैं। कथा के प्रथम दिवस मुख्य यजमान शुगर एवं हार्ट स्पेशलिस्ट डा.अनिल भट्ट, वीना धवन, शांति दर्गन, रिंकू शर्मा, महेंद्र शर्मा, रुद्राक्ष भट्ट, रिंकी भट्ट, विमला देवी भट्ट, पंडित गणेश कोठारी, रीना जोशी, मोनिका बिश्नोई आदि भागवत पूजन किया।


